भड़काएँ मेरी प्यास को अक्सर तेरी आँखें
सहरा मेरा चेहरा है समुंदर तेरी आँखें,
फिर कौन भला दाद ए तबस्सुम उन्हें देगा
रोएँगी बहुत मुझ से बिछड़ कर तेरी आँखें,
ख़ाली जो हुई शाम ए ग़रीबाँ की हथेली
क्या क्या न लुटाती रहीं गौहर तेरी आँखें,
बोझल नज़र आती हैं ब ज़ाहिर मुझे लेकिन
खुलती हैं बहुत दिल में उतर कर तेरी आँखें,
अब तक मेरी यादों से मिटाए नहीं मिटता
भीगी हुई एक शाम का मंज़र तेरी आँखें,
मुमकिन हो तो एक ताज़ा ग़ज़ल और भी कह लूँ
फिर ओढ़ न लें ख़्वाब की चादर तेरी आँखें,
मैं संग सिफ़त एक ही रस्ते में खड़ा हूँ
शायद मुझे देखेंगी पलट कर तेरी आँखें,
यूँ देखते रहना उसे अच्छा नहीं मोहसिन
वो काँच का पैकर है तो पत्थर तेरी आँखें..!!
~मोहसिन नक़वी