वतन को कुछ नहीं ख़तरा निज़ाम ए ज़र…

वतन को कुछ नहीं ख़तरा निज़ाम ए ज़र है ख़तरे में
हक़ीक़त में जो रहज़न है वही रहबर है ख़तरे में,

जो बैठा है सफ़ ए मातम बिछाए मर्ग ए ज़ुल्मत पर
वो नौहागर है ख़तरे में वो दानिश वर है ख़तरे में,

अगर तशवीश लाहक़ है तो सुलतानों को लाहक़ है
न तेरा घर है ख़तरे में न मेरा घर है ख़तरे में,

जहाँ ‘इक़बाल’ भी नज़्र ए ख़त ए तनसीख़ हो ‘जालिब’
वहाँ तुझ को शिकायत है तेरा जौहर है ख़तरे में..!!

~हबीब जालिब

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