आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को…
आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को कब तक मैं छुपा रखता इस ख़्वाब …
आया ही नहीं कोई बोझ अपना उठाने को कब तक मैं छुपा रखता इस ख़्वाब …
अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना ये काम सहल बहुत है मगर …
छोड़ो अब उस चराग़ का चर्चा बहुत हुआ अपना तो सब के हाथों ख़सारा बहुत …
सवाद ए शाम न रंग ए सहर को देखते हैं बस एक सितारा ए वहशत …
लोग कहते थे वो मौसम ही नहीं आने का अब के देखा तो नया रंग …