फ़ैसले वो न जाने कैसे थे

फ़ैसले वो न जाने कैसे थे
रात की रात घर से निकले थे,

याद आते हैं अब भी रह रह कर
शहर में कुछ तो ऐसे चेहरे थे,

क्या ज़माना था वो कि हम दोनों
एक दूजे का दुख समझते थे,

किस कड़ी धूप के सफ़र में हैं
नाम पेड़ों पे जिन के लिखे थे,

जाने किस गुलबदन की याद आई
फ़स्ल ए गुल में उदास बैठे थे,

वक़्त सा चारागर भी हार गया
हिजरतों के तो ज़ख़्म ऐसे थे,

पहली बारिश ही ले गई फ़ारूक़
रंग सारे के सारे कच्चे थे..!!

~फ़ारूक़ इंजीनियर

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