जुदाई रूह को जब इश्तिआल देती है
जुदाई रूह को जब इश्तिआल देती है ख़ुनुक हवा भी बदन को उबाल देती है, अगर हो वक़्त
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जुदाई रूह को जब इश्तिआल देती है ख़ुनुक हवा भी बदन को उबाल देती है, अगर हो वक़्त
दिल है सहरा से कुछ उदास बहुत घर को वीराँ करूँ तो घास बहुत, रोब पड़ जाए इस
अब रहा क्या जो लुटाना रह गया ज़िंदगी का एक ताना रह गया, एक तअल्लुक़ जिन से था
एक लम्हा कि मिलें सारे ज़माने जिसमें एक नुक्ता सभी हिकमत के ख़ज़ाने जिसमें, दायरा जिसमें समा जाएँ
सूखी ज़मीं को याद के बादल भिगो गए पलकों को आज बीते हुए पल भिगो गए, आँसू फ़लक
जिसकी ख़ातिर मैने दुनिया की तरफ़ देखा न था वो मुझे यूँ छोड़ जाएगा कभी सोचा न था,
छा गया मेरे मुक़द्दर पे अंधेरा ऐ दोस्त तू ने शानों पे जो गेसू को बिखेरा ऐ दोस्त,
सदाक़तों को ये ज़िद है ज़बाँ तलाश करूँ जो शय कहीं न मिले मैं कहाँ तलाश करूँ ?
जिस्म के घरौंदे में आग शोर करती है दिल में जब मोहब्बत की चाँदनी उतरती है, शाम के
यहाँ जो ज़ख़्म मिलते हैं वो सिलते हैं यहीं मेरे तुम्हारे शहर के सब लोग तो दुश्मन नहीं