इल्म ओ हुनर से क़ौम को रग़बत नहीं रही
इल्म ओ हुनर से क़ौम को रग़बत नहीं रही इस पर शिकायतें कि फ़ज़ीलत नहीं रही, बदलेगा क्या
Sad Poetry
इल्म ओ हुनर से क़ौम को रग़बत नहीं रही इस पर शिकायतें कि फ़ज़ीलत नहीं रही, बदलेगा क्या
हुज़ूर हद भी कोई होवे इंतिज़ारी की कि इंतिहा हुई जावे है बे क़रारी की, न कुछ कहो
ग़म्ज़ा नहीं होता कि इशारा नहीं होता आँख उन से जो मिलती है तो क्या क्या नहीं होता
आह जो दिल से निकाली जाएगी क्या समझते हो कि ख़ाली जाएगी ? इस नज़ाकत पर ये शमशीर
फिरते हैं जिस के वास्ते हम दर ब दर अभी क्या कीजिए नहीं है उसे कुछ ख़बर अभी,
हम से आँखें मिलाइए तो कहें अपना जल्वा दिखाइए तो कहें, रस्म ही है अगर तो फिर रस्मन
दोस्ती का फ़रेब ही खाएँ आओ काग़ज़ की नाव तैराएँ, हम अगर रहरवी का अज़्म करें मंज़िलें खिंच
आया है हर चढ़ाई के बाद एक उतार भी पस्ती से हम कनार मिले कोहसार भी, आख़िर को
नक़ाब ए रुख़ उठाया जा रहा है घटा में चाँद आया जा रहा है, ज़माने की निगाहों में
जब से वो मुझे भुलाये जा रही है कोई बला मेरा दिल खाए जा रही है, एक उम्र