ये कब चाहा कि मैं मशहूर हो जाऊँ
ये कब चाहा कि मैं मशहूर हो जाऊँ बस अपने आप को मंज़ूर हो जाऊँ, नसीहत कर रही
Sad Poetry
ये कब चाहा कि मैं मशहूर हो जाऊँ बस अपने आप को मंज़ूर हो जाऊँ, नसीहत कर रही
घर से निकले थे हौसला कर के लौट आए ख़ुदा ख़ुदा कर के, दर्द ए दिल पाओगे वफ़ा
कुछ परिंदों को तो बस दो चार दाने चाहिएँ कुछ को लेकिन आसमानों के ख़ज़ाने चाहिएँ, दोस्तों का
किसी दिन ज़िंदगानी में करिश्मा क्यूँ नहीं होता मैं हर दिन जाग तो जाता हूँ ज़िंदा क्यूँ नहीं
जाने कितनी उड़ान बाक़ी है इस परिंदे में जान बाक़ी है, जितनी बटनी थी बट चुकी ये ज़मीं
ये जो ज़िंदगी की किताब है ये किताब भी क्या किताब है कहीं एक हसीन सा ख़्वाब है
अब क्या बताएँ टूटे हैं कितने कहाँ से हम ख़ुद को समेटते हैं यहाँ से वहाँ से हम
यहाँ हर शख़्स हर पल हादसा होने से डरता है खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से
ज़िंदगी तू ने लहू ले के दिया कुछ भी नहीं तेरे दामन में मेरे वास्ते क्या कुछ भी
तह ब तह है राज़ कोई आब की तहवील में ख़ामुशी यूँ ही नहीं रहती है गहरी झील