मुल्क की ऐसी तरक़्क़ी, आपकी बला से हो जो हो
मुल्क की ऐसी तरक़्क़ी, आपकी बला से हो जो हो क़ौम की कैसी भी पस्ती, आपकी बला से
Occassional Poetry
मुल्क की ऐसी तरक़्क़ी, आपकी बला से हो जो हो क़ौम की कैसी भी पस्ती, आपकी बला से
पहले जनाब कोई शिगूफ़ा उछाल दो फिर कर का बोझ क़ौम की गर्दन डल डाल दो, रिश्वत को
जितने हरामख़ोर थे क़ुर्बो जवार में परधान बनके आ गए अगली क़तार में, दीवार फाँदने में यूँ जिनका
काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में उतरा है रामराज विधायक निवास में, पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों
तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है मगर ये आँकड़ें झूठे हैं ये दावा किताबी है, उधर
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे अपने शाहे वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे, देखने
सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं दिल रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है ? कोठियों
वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें ? लोक रंजन
भूख के एहसास को शेर ओ सुख़न तक ले चलो या अदब को मुफ़्लिसों की अंजुमन तक ले
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे,