न होता दहर से जो बेनियाज़ क्या करता
न होता दहर से जो बेनियाज़ क्या करता खुला था मुझ पे कुछ ऐसा ही राज़ क्या करता
General Poetry
न होता दहर से जो बेनियाज़ क्या करता खुला था मुझ पे कुछ ऐसा ही राज़ क्या करता
तेशा ब दस्त आ मेरे आज़र तराश दे बेडोल है बहुत मेरा पैकर तराश दे, गर क़ुमरियों के
शहर मेरा हुजरा ए आफ़ात है सर पे सूरज और घर में रात है, सुर्ख़ थे चेहरे बदन
उठाओ संग कि हम में सनक बहुत है अभी हमारे गर्म लहू में नमक बहुत है अभी, उतर
अब ज़र्द लिबादे भी नहीं ख़ुश्क शजर पर जिस सम्त नज़र उठती है बे रंग है मंज़र, उतरे
मैं सोचता तो हूँ लेकिन ये बात किस से कहूँ वो आइने में जो उतरे तो मैं सँवर
ख़्वाहिशों का इम्तिहाँ होने तो दो फ़ासले कुछ दरमियाँ होने तो दो, मय कशी भी बा वज़ू होगी
क्यों वो मेरा मरकज़ ए अफ़्कार था ? जिस के होने से मुझे इंकार था, यूँ तो मुश्किल
या रब मेरी हयात से ग़म का असर न जाए जब तक किसी की ज़ुल्फ़ ए परेशाँ सँवर
मुझे प्यार से तेरा देखना मुझे छुप छुपा के वो देखना मेरा सोया जज़्बा उभारना तुम्हें याद हो