कोशिश तो है कि ज़ब्त को रुस्वा करूँ नहीं
कोशिश तो है कि ज़ब्त को रुस्वा करूँ नहीं हँस कर मिलूँ सभी से किसी पर खुलूँ नहीं,
General Poetry
कोशिश तो है कि ज़ब्त को रुस्वा करूँ नहीं हँस कर मिलूँ सभी से किसी पर खुलूँ नहीं,
कुछ इस क़दर मैं ख़िरद के असर में आ गया हूँ सिमट के सारा का सारा ही सर
बे घरी का अपनी ये इज़हार कम कर दीजिए शेर में ज़िक्र ए दर ओ दीवार कम कर
दुनिया से जिस से आगे का सोचा नहीं गया हम से वहाँ पहुँच के भी ठहरा नहीं गया,
ख़त में उभर रही है तस्वीर धीरे धीरे गुम होती जा रही है तहरीर धीरे धीरे, एहसास तुझ
न जिस्म साथ हमारे न जाँ हमारी तरफ़ है कुछ भी हम में हमारा कहाँ हमारी तरफ़, खड़े
कितनी आसानी से दुनिया की गिरह खोलता है मुझ में एक बच्चा बुज़ुर्गों की तरह बोलता है, क्या
इजाज़त कम थी जीने की मगर मोहलत ज़्यादा थी हमारे पास मरने के लिए फ़ुर्सत ज़्यादा थी, तअज्जुब
ये कब चाहा कि मैं मशहूर हो जाऊँ बस अपने आप को मंज़ूर हो जाऊँ, नसीहत कर रही
घर से निकले थे हौसला कर के लौट आए ख़ुदा ख़ुदा कर के, दर्द ए दिल पाओगे वफ़ा