वो ग़ज़ल वालों का उस्लूब समझते होंगे…
वो ग़ज़ल वालों का उस्लूब समझते होंगे चाँद कहते हैं किसे ख़ूब समझते होंगे, इतनी मिलती है मेरी
Bashir Badr
वो ग़ज़ल वालों का उस्लूब समझते होंगे चाँद कहते हैं किसे ख़ूब समझते होंगे, इतनी मिलती है मेरी
जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे हज़ारों तरफ़ से निशाने लगे, हुई शाम यादों के एक गाँव में
है अजीब शहर की ज़िंदगी न सफ़र रहा न क़याम है कहीं कारोबार सी दोपहर कहीं बदमिज़ाज सी
साथ चलते आ रहे हैं पास आ सकते नहीं एक नदी के दो किनारों को मिला सकते नहीं,
सोयें कहाँ थे आँखों ने तकिए भिगोये थे हम भी कभी किसी के लिए ख़ूब रोये थे, अँगनाई
रेत भरी है इन आँखों में आँसू से तुम धो लेना कोई सूखा पेड़ मिले तो उस से
फूल बरसे कहीं शबनम कहीं गौहर बरसे और इस दिल की तरफ़ बरसे तो पत्थर बरसे, कोई बादल
नज़र से गुफ़्तुगू ख़ामोश लब तुम्हारी तरह ग़ज़ल ने सीखे हैं अंदाज़ सब तुम्हारी तरह, जो प्यास तेज़
न जी भर के देखा न कुछ बात की बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की, उजालों की परियाँ नहाने
मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे मुक़द्दर में चलना था चलते रहे, कोई फूल सा हाथ काँधे पे था