सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं
सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं दिल रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है ? कोठियों
Sad Poetry
सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं दिल रखकर हाथ कहिए देश क्या आज़ाद है ? कोठियों
वेद में जिनका हवाला हाशिए पर भी नहीं वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें ? लोक रंजन
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे,
जो उलझकर रह गई है फ़ाइलों के जाल में गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में ?
ये अमीरों से हमारी फ़ैसलाकुन जंग थी फिर कहाँ से बीच में मस्जिद व मंदिर आ गए ?
घर पे ठंडे चूल्हे पर अगर ख़ाली पतीली है बताओं कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है
वल्लाह किस जुनूँ के सताए हुए हैं लोग हमसाए के लहू में नहाए हुए हैं लोग, ये तिश्नगी
न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से तमद्दुन में निखार आता है ‘घीसू’ के पसीने
ये समझते हैं खिले हैं तो फिर बिखरना है पर अपने ख़ून से गुलशन में रंग भरना है,
अचेतन मन में प्रज्ञा कल्पना की लौ जलाती है सहज अनुभूति के स्तर में कविता जन्म पाती है