उजड़ उजड़ के सँवरती है तेरे हिज्र की शाम
उजड़ उजड़ के सँवरती है तेरे हिज्र की शाम न पूछ कैसे गुज़रती है तेरे हिज्र की शाम
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उजड़ उजड़ के सँवरती है तेरे हिज्र की शाम न पूछ कैसे गुज़रती है तेरे हिज्र की शाम
निगाह ए इल्तिफ़ात अब बदगुमाँ मालूम होती है मेरी हर बात दुनिया को गिराँ मालूम होती है, तड़प
हम तो हर ग़म को जहाँ के ग़म ए जानाँ समझे जब बढ़ा नश्शा तो हम बादा ए
अंदाज़ हू ब हू तेरी आवाज़ ए पा का था देखा निकल के घर से तो झोंका हवा
तुझे खो कर भी तुझे पाऊँ जहाँ तक देखूँ हुस्न ए यज़्दाँ से तुझे हुस्न ए बुताँ तक
फ़रेब ए हुस्न तेरा एतिबार कर लेंगे इसी तरह से ख़िज़ाँ को बहार कर लेंगे, हमारा साथ अगर
फ़ना कुछ नहीं है बक़ा कुछ नहीं है फ़क़त वहम है मा सिवा कुछ नहीं है, मेरा उज़्र
इस तरह गुम हूँ ख़यालों में कुछ एहसास नहीं कौन है पास मेरे कौन मेरे पास नहीं, दर्द
कमाँ पे चढ़ के ब शक्ल ए ख़दंग होना पड़ा हरीफ़ ए अम्न से मसरूफ़ ए जंग होना
जुदा उस जिस्म से हो कर कहीं तहलील हो जाता फ़ना होते ही लाफ़ानी में मैं तब्दील हो