कुछ न इस काम में किफ़ायत की
कुछ न इस काम में किफ़ायत की मैं ने दिल खोल कर मोहब्बत की, सस्ते दामों कहाँ मैं
Sad Poetry
कुछ न इस काम में किफ़ायत की मैं ने दिल खोल कर मोहब्बत की, सस्ते दामों कहाँ मैं
शजर में शजर सा बचा कुछ नहीं हवाओं से फिर भी गिला कुछ नहीं, कहा क्या गुज़रते हुए
फ़ैसले वो न जाने कैसे थे रात की रात घर से निकले थे, याद आते हैं अब भी
इस बार तो ग़ुरूर ए हुनर भी निकल गया बच कर वो मुझ से बार ए दिगर भी
रास्ते अपनी नज़र बदला किए हम तुम्हारा रास्ता देखा किए, अहल ए दिल सहरा में गुम होते रहे
बला वो टल गई सदक़े में जिस के शहर चढ़े हमें डुबो के न अब कोई ख़ूनी नहर
हर चमकती क़ुर्बत में एक फ़ासला देखूँ कौन आने वाला है किस का रास्ता देखूँ ? शाम का
फिर गोया हुई शाम परिंदों की ज़बानी आओ सुनें मिट्टी से ही मिट्टी की कहानी, वाक़िफ़ नहीं अब
वक़्त बंजारा सिफ़त लम्हा ब लम्हा अपना किस को मालूम यहाँ कौन है कितना अपना ? जो भी
एक रात लगती है एक सहर बनाने में हम ने क्यों नहीं सोचा हमसफ़र बनाने में ? मंज़िलें