तुम्हे बहार की कलियाँ जवाँ पुकारती है…

तुम्हे बहार की कलियाँ जवाँ पुकारती है
कहती मरहबा ! सब तितलियाँ पुकारती है,

न बोसा प्यार का अंबर फिशां लबो से लो
ये मेरी साँसों की खामोशियाँ पुकारती है,

हसीं रातें हैं दीदार को बनी तेरे
क़मर, नज़ूम की किरने रवां पुकारती है,

न आना सामने शीशे के हो के तुम मलबूस
लटकती ज़ुल्फ़ की ये कुण्डलियाँ पुकारती है,

ज़मीं ओ चर्ख बहुत गर्म जोशी में है आज
घटाओ से निकलती बिजलियाँ पुकारती है,

पसंद आई है मेहँदी को इस कदर ज़द से
नहीं है छोड़नी, तलियां ऐ जाँ, पुकारती है,

मुराअज़ात तेरी एक पल को भी गँवारा नहीं
ये नीली फ़ाम सी परियाँ यहाँ पुकारती है,

तेरी निगाह के साहिल पे है ठहरता दिल
ये हिज़्र ए इश्क़ की सब कश्तियाँ पुकारती है,

सुकून का है ज़रिया तुम्हारी खाक़ ए क़दम
गुल ए गुलाब की सब पत्तियाँ पुकारती है,

ज़फा न हो के जा मुझसे मेरे प्यारे दोस्त
तमाम शहर की गलियाँ निहाँ पुकारती है..!!

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