नाज़ उसके उठाता हूँ रुलाता भी मुझे है…

नाज़ उसके उठाता हूँ रुलाता भी मुझे है
ज़ुल्फो में सुलाता भी, जगाता भी मुझे है,

आता है बहुत उसपे मुझे गुस्सा भी लेकिन
प्यार उसपे कभी टूट के आता भी मुझे है,

दर पे है मेरी जान के जो पीछे पड़ा है
वो दुश्मन ए जाँ दोस्तों भाता भी मुझे है,

अंजान बना रहता है बेज़ार देख कर
वहशत में वो तन्हाई में पाता भी मुझे है,

गर आए ज़फ़ा करने पे, तौबा मेरी तौबा !
वो किस्से वफ़ाओं के सुनाता भी मुझे है,

ज़न्नत की कोई सैर कराता है रफीको
दोज़ख में मगर खींच कर लाता भी मुझे है,

मैं उसकी दुआ बन के मचलता हूँ लबो पर
दिन रात वो होंठों पे सजाता भी मुझे है,

वो जीत की अस्नाद मेरे नाम लगा कर
खंज़र से कोई घाव लगाता भी मुझे है,

आता है मेरे घर को सजाने के लिए भी
जब नींद खुले छोड़ के जाता भी मुझे है,

पहले तो बुलाता है बड़े शौक़ से मुझको
फिर डांट के महफ़िल से उठाता भी मुझे है..!!

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