जाने किस करनी का फल होगा
कैसी फिजा, कैसे मौसम में जागे हम ?
शहरों से सेहराओ तक टहनी टहनी
हर सिम्त झूल रही लाशें ज़िन्दा पत्तो की,
क्या इसी दिन और नज़्ज़ारे की खातिर
चैन ओ सुकूं छोड़ जंगल जंगल भागे हम ?
कैसे जलती तपती इस दोपहरी में
कोई प्यासा पंछी नहर किनारे उतरेगा ?
तेज़ नुकीले खंज़र और तलवारों के
दरमियाँ हो जैसे कोई फँसे हुए धागे हम
जब अपनी ही यहाँ कोई पहचान नहीं
तो हमसाए को कैसे अब पहचाने हम ?
चप्पे चप्पे पर तो चुनवा दी है दीवारे
कैसे देखे और क्या देखे इनके आगे हम ??