इलाज ए ज़ख़्म ए दिल होता है ग़मख़्वारी भी होती है
मगर मक़्तल की मेरे ख़ूँ से गुलकारी भी होती है,
वही क़ातिल वही मुंसिफ़ अदालत उसकी वो शाहिद
बहुत से फ़ैसलों में अब तरफ़दारी भी होती है,
ये है तुर्फ़ा तमाशा कर्बला ए अस्र ए हाज़िर का
घरों में क़ातिलों के अब अज़ादारी भी होती है,
तअल्लुक़ उन से टूटा था न टूटा है न टूटेगा
बहुत मज़बूत ज़ंजीर ए वफ़ादारी भी होती है,
वो मेरा दोस्त है ‘मंज़ूर’ लेकिन जब भी मिलता है
ख़ुलूस ए दिल में शामिल कुछ रियाकारी भी होती है..!!
~मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद