हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर माह-ए-तमाम हुए..

लोग हिलाल-ए-शाम से बढ़ कर पल में माह-ए-तमाम हुए
हम हर बुर्ज में घटते घटते सुब्ह तलक गुमनाम हुए,

उन लोगों की बात करो जो इश्क़ में ख़ुश-अंजाम हुए
नज्द में क़ैस यहाँ पर ‘इंशा’ ख़ार हुए नाकाम हुए,

किस का चमकता चेहरा लाएँ किस सूरज से माँगें धूप
घूर अँधेरा छा जाता है ख़ल्वत-ए-दिल में शाम हुए,

एक से एक जुनूँ का मारा इस बस्ती में रहता है
एक हमीं हुशियार थे यारो एक हमीं बद-नाम हुए,

शौक़ की आग नफ़स की गर्मी घटते घटते सर्द न हो
चाह की राह दिखा कर तुम तो वक़्फ़-ए-दरीचा-ओ-बाम हुए,

उन से बहार ओ बाग़ की बातें कर के जी को दुखाना क्या
जिन को एक ज़माना गुज़रा कुंज-ए-क़फ़स में राम हुए,

‘इंशा’-साहिब पौ फटती है तारे डूबे सुब्ह हुई
बात तुम्हारी मान के हम तो शब भर बे-आराम हुए..!!

~इब्न-ए-इंशा

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