दर्द ख़ामोश रहा टूटती आवाज़ रही
मेरी हर शाम तेरी याद की हमराज़ रही,
शहर में जब भी चले ठंडी हवा के झोंके
तपते सहरा की तबीअत बड़ी ना साज़ रही,
आइने टूट गए अक्स की सच्चाई पर
और सच्चाई हमेशा की तरह राज़ रही,
एक नए मोड़ पे उसने भी मुझे छोड़ दिया
जिसकी आवाज़ में शामिल मेरी आवाज़ रही,
सुनता रहता हूँ बुज़ुर्गों से मैं अक्सर ताहिर
वो समाअत ही रही और न वो आवाज़ रही..!!
~ताहिर फ़राज़