दर्द का शहर बसाते हुए रो पड़ता हूँ…

दर्द का शहर बसाते हुए रो पड़ता हूँ
रोज़ घर लौट के आते हुए रो पड़ता हूँ

जाने क्या सोच के ले लेता हूँ ताज़ा गजरे
और फिर फेकने जाते हुए रो पड़ता हूँ

ज़िस्म पे चाकू से हँसते हुए जो लिखा था
अब तो वो नाम दिखाते हुए रो पड़ता हूँ

राह तकते हुए देखूँ जो किसी तन्हा को
जाने क्यूँ आस दिलाते हुए रो पड़ता हूँ

लोग जब रोग की तफ़सील तलब करते है
सख्त एक बात छुपाते हुए रो पड़ता हूँ

गरम थी चोट तभी लिख सका ये गम की बियाध
अब तो एक शेर सुनाते हुए रो पड़ता हूँ

रोज़ दिल करता है मुँह मोड़ लूँ मैं दुनियाँ से
रोज़ मैं दिल को मनाते हुए रो पड़ता हूँ

इस्म ए लैला को फ़क़त इस लिए रखा मखफी
फूट कर नाम बताते हुए रो पड़ता हूँ

दूर जाता हो कोई यार सभी कहते है
सिर्फ़ मैं हाथ हिलाते हुए रो पड़ता हूँ

चंद चुप चाप सी यादो का है साया मुझ पर
अक्सर अब बारिश में नहाते हुए रो पड़ता हूँ..!!

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